रेकी चिकित्सा क्या है


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Reiki


    रेकी चिकित्सा अथवा स्पर्श चिकित्सा प्रद्धति के प्रणेता डॉ. निकाओ उसुई को माना जाता है । रेकी एक जापानी शब्द है। 'रे' का अर्थ है - ईश्वरीय सृष्टि अर्थात् ब्रह्माण्ड और 'की' का अर्थ है प्राण ऊर्जा अर्थात् जीवन शक्ति । रेकी का मूल उद्देश्य भी ब्रह्माण्ड से प्राण ऊर्जा को प्राप्त करना है। यह वह ईश्वरीय शक्ति है जो जीवन में जीवत्व का संचार करके उसको स्वस्थ, प्रसन्न और प्राण ऊर्जा से सम्पन्न बनाती है। इसमें दो-तीन दशक से रेकी का व्यापक प्रचार हुआ है। परन्तु देखा जाए तो प्राण ऊर्जा का संचार अनादि काल से महापुरूषों द्वारा किया जाता रहा है। यह ऊर्जा अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति, योग साधना, संयमित जीवन, आध्यात्मिक पथ आदि द्वारा स्वयं अर्जित किया गया हो तब तो यह एक अलग विषय है।  परन्तु यह तथ्य छिपा नहीं है कि अन्य किसी के द्वारा जो ज्ञान और उपलब्धि आज व्यवहार में परोसी जा रही है उसमें कितनी मौलिकता है और उसका प्रभाव कितना प्रभावशाली। जो कोई रेकी कर रहा है उसका प्रभाव वस्तुतः उसकी योग्यता, उसकी भावना, उसकी साधना तथा उसके संयम पर पूर्णतया निर्भर करता है। यदि रेकीकर्ता पूर्णतया अपनी पात्रता में परिपक्व है तब तो व्यक्ति में जीवन शक्ति का संचार होगा ही होगा। रेकी ज्ञान का प्रचार भारत से तिब्बत, चीन होते हुए जापान पहुँचा। डॉ. उसुई ने नियम और क्रमानुसार बौद्ध धर्म के साथ-साथ इस दिव्य ज्ञान की दीक्षा ग्रहण की और परम ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त जनहित में इस का व्यापक प्रचार-प्रसार  किया था इसलिए उनको रेकी का आधुनिक जनक भी कहा गया है। रेकी का गुप्त सूत्र स्थूल  नहीं बल्कि सूक्ष्म शरीर में छिपा हुआ है। इस गुप्तादिगुप्त भेद को जब तक नहीं समझा जाएगा तब तक रेकी क्रिया में प्रवीण नहीं हुआ जा सकता ।
    साधना चक्र प्रणाली और रस स्त्रावी प्रणाली में तारतम्य बैठाकर स्थूल और सूक्ष्म शरीर में सन्तुलन बनाया जाता हैं। उद्देश्य यदि आत्मा और परमात्मा के मिलन को लेकर क्रिया की जा रही है तब तो बात ही कुछ और है। परन्तु ऐसा अधिकांश होता नहीं है। क्योंकि भौतिकवादी विचारधार और जीवन की अनन्त महत्त्वाकांक्षाओं के कारण दिव्य ज्ञान में मन रमता ही नहीं है और रेकी का उपयोग भौतिक और शारीरिक सुखों के लिए होने लगता है। इसमें भी कोई बुराई नहीं है। बुराई तब प्रारम्भ हो जाती है जब इसका व्यवसायिक रूप से दोहन होने लगता है।  जो कुछ भी है आइए देखते हैं कि इस दिव्य ज्ञान का संक्षिप्त सार-सत है क्या?
    सूक्ष्म शरीर में सहस्त्रारचक्र के समीप पीनियल ग्रन्थि स्थित है। यहीं से ज्ञाता-क्षेय का तथा आत्मा और परमात्मा का एकाकार होता है। आत्मज्ञान और विवेकशक्ति के केन्द्र आज्ञाचक्र के समीप आत्मसंचालित नाड़ीतंत्र, रस स्त्रावी पिट्यूटरी ग्रन्थि स्थित है इसी प्रकार थाइराइट ग्रन्थि, थाइमस ग्रन्थि, एड्रीनल आदि ग्रन्थियाँ भी अनाहतचक्र, मणिपूरचक्र, स्वाधिष्ठानचक्र के समीप स्थित हैं। रेकी ऊर्जा उपचार में इन ऊर्जा केन्द्रों और चक्रों के सन्तुलन से शरीर के भाव तरंगो में वृद्धि होने से शरीर की सभी प्रणालियों में सन्तुलन स्थापित हो जाता है। साधक प्राणायाम मस्तिष्क के स्नायु जाल (मस्तिष्क के सम्पूर्ण दूषित रक्त को निकालकर और हृदय में अधिकाधिक शुद्ध रक्त भरने पर) तथा मनोविकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, भात्सर्म, ईर्ष्या, द्वेष घृणा और शोकादि) को दबाकर जहाँ मानसिक समता स्थापना में समर्थ होता है, वहीं शरीर के अन्य स्नायुओं, ग्रंन्थि समूहों और मांसपेशियों को समृद्ध, सशक्त और पुष्ट बनाता है। श्वास लेते हुए जब भावना करते हैं और मनःस्थिति बनाते हैं कि शुद्ध वायु के साथ हमारा शरीर सुन्दर, सशक्त, स्वस्थ एंव निरोगी हो रहा है और श्वास छोड़ते समय भाव रखते हैं कि शरीर के समस्त दूषित विकार, मल आदि बाहर निकल रहे हैं या कहें कि बाहर निकालकर फेके जा  रहे हैं तब रेकी क्रिया स्वतः अपना शोधन कार्य करने लगती है। और यदि थोड़ा तत्व ज्ञान प्राप्त कर लें और स्वयं अभ्यास में रम जाएं तो रेकी का परिणाम बहुत ही अल्पकाल में मिलने लगता है । यह निर्भर करता है कि कितनी जल्दी अपने मन को स्थिर कर लिया जाए। मन एकाग्र करके अपनी स्वाभाविक श्वसन् क्रिया में सूर्य के स्वर्णमय प्रकाशपुंज को ग्रहण करने का  अभ्यास करें। जब श्वास लें तब सूर्य के स्वर्णपुंज में पहुँचने का अभ्यास करें । आपको लगने लगेगा कि सबकुछ प्रकाशमय है। जब श्वास बाहर निकले तब भावना जगाएं कि प्रकाशपुंज सुदर्शन च्रक की भांति घुमता हुआ धीरे-धीरे आपके ऊपर आ रहा है। श्वास की गति के साथ बैंगनी आभा बिखराते हुए वह पुंज सहस्त्रार चक्र में प्रवेश कर रहा है। फिर वह क्रमशः ज्ञानचक्र तक आते हुए नीलवर्ण, विशुद्ध चक्र में फिरोजी आभा, अनाहत चक्र में हरितवर्ण, मणिपूर में पीतवर्ण, स्वाधिष्ठानचक्र में सिन्दूरीवर्ण तथा मूलाधार में रक्तवर्णी आभा फैलाकर आपके अन्दर दिव्य प्रेम, चेतना और उल्लास भर रहा है।
    यह तो हुआ निःस्वार्थ भाव से मात्र स्वान्तसुखाय रेकी अभ्यास । परन्तु इसको यदि स्वयं की अथवा अन्य किसी की  इच्छा पूर्ति के लिए कर रहे हैं तो इन आभा, तत्त्व और  षट्चक्रों की  चैतन्यता के बाद पहले अपने को मन, कर्म, और वचन  से रेकी क्रिया देने का सुपात्र बना लें । जब रेकी की आवश्यकता वास्तव में हो तब अपने दोनों हाथों को पुष्पाजंलि अर्पण करने की मुद्रा में बनाते हुए श्रद्धा भाव से रेकी शक्ति का आवाहन करें, 'हे देवीय दिव्य रेकी शक्ति मैं (अपना नाम अथवा उस व्यक्ति का नाम उच्चारण करें जिसको रेकी क्रिया द्वारा आप चैतन्यता प्रदान करना चाहते है ) का दिव्य उपचार करना चाहता हूँ, कृपया अपनी दिव्य शक्ति का मेरे समस्त शरीर में संचार करें।' इसके बाद अपने तथा कथित गुरू का (यदि कोई धारण किया हो) आहवान करें, 'समस्त जाने-अनजाने रेकी मार्गदर्शक गुरूजनों मैं रेकी उपचार करने हेतु आपका श्रद्धा से आवाहन कर रहा हूँ। आप उपचार में मेरा सहयोग करें।' अब उँगलियों के प्रथम पोर पर तथा हथेली में पर्वतों पर स्थित सूक्ष्म धारियों पर ध्यान केद्रित करें। यही वह केन्द्र है जहाँ से ऊर्जा का संचार होगा। दोनों हाथों की दसों उँगलियों को क्रमशः परस्पर एक-दूसरे से घड़ी की सूई की दिशा में गोल घुमाते हुए रगड़ें। अर्थात् पहले एक हाथ की अनामिका के प्रथम पोर से दूसरे हाथ की अनामिका, फिर एक हाथ की मध्यमा से दूसरे हाथ की मध्यमा आदि क्रम से बारी-बारी पोरों को घर्षण करके ऊर्जा उत्पन्न करें। दोनों हथेलियों को अब एक दूसरे से दो फीट की दूरी पर रखकर धीरे -धीरे पास लाएं। यदि इस स्थिति में लगता है कि हथेलियों में कोई कम्पन्न, संवेदना, झनझनाहट आदि कुछ अनुभूत होती है तब समझ लें कि रेकी के लिए अब शरीर तैयार है। यदि नहीं, तो पुनः वही पिछला उपक्रम दोहराएं । उँगलियों के चक्र जब चेतन हो जाएं तब हथेली अथवा उँगलियों के पोरों से पीड़ित अंगों पर स्पर्श दें। अतिरिक्त ऊर्जा से निरोगी शरीर धीरे-धीरे रोग मुक्त होने लगेगा। यदि अपनी श्वसन क्रिया रोगी की श्वसन क्रिया की लय के समान करके रेकी करेंगे तो लाभ की गति और भी तीव्र हो जाएगी।
    रेकी क्रिया में सिद्धहस्त होने के बाद मानसिक अवसाद, रक्तचाप, हृदय रोग, सिरदर्द, सरवाईकल, अस्थमा, गठिया, गुर्दे यहाँ तक कि कैंसर आदि जैसे असाध्य रोगों तक में लाभ पहुँचाया जा सकता है। परन्तु रेकी विषय पर लिखना, पढ़ना, भाषण सुनना आदि की अपेक्षा अपनी स्वयं की इच्छाशक्ति, सात्विक जीवन के साथ सतत् चक्रों को चैतन्य करने का अभ्यास, साधना आदि अधिक निर्भर करेगा कि आप इस दिव्य शक्ति विद्या में कितनी जल्दी सिद्धहस्त हो पाते हैं।


मानसश्री गोपाल राजू
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